इस पहाड़ ने क्या-क्या देखा है..
नदियों को निकलते देखा है…
पानी को फिसलते देखा है..
ज़रूरतों का आभाव भी देखा है…
पलायन का घाव भी देखा है…
घरों को खंडर होते देखा है…
खेतों को बंज़र होते देखा है…
अपनी मारती भाषाएँ देखी है…
अपनी टूटती आशाएँ देखी है..
अपनी नदियों का खनन भी देखा है..
अपने सपनो का हनन भी देखा है…
अपनो को भागते देखा है..
ख़्वाबों को जागते देखा है…
इस पहाड़ ने सब कुछ देखा है..
पर आँखे इसकी उम्मीद न खोती है..
थक चुकी है आँखे वो
पर एक पल के लिए न सोती है..
वो आँखें बस इस ही उम्मीद में जाग रही है..
की कभी तो वापस मुड़ेगी वो जवानी जो आज भाग रही है…