कुसुम दी
सुबह के समय बरसात के मौसम में, मैं अपने बरामदें में बैठकर, सुबह समाचार-पत्र में खोया हुआ था।
बाहर बारिश हो रही थी, मैं साथ में चाय की चुस्की का आन्नद ले रहा था। तभी अचानक फोन की घंटी
घनघनाने लगी। फोन मैंने ही उठाया “हैलो” तभी दूसरी ओर से आवाज आई।
“हैलो मैं राजु”।
“राजु”! “कौन राजु”? मैंने अचानक चौंकते हुए पुछा?
“अरे दाज्यू मैं राजु बुलांण लाग रयू” राजेन्द्र अल्माड़ बटी।“
“अरे राजु तू छै”। और सुना सब भाल हरैनी या”?
“अरे दाज्यू ऊ कुसुमीदी छी ना”
“हो हो” कै हाल छन उनर”?
“ऊ गुजर गई”।
“कै कुणों छै तू!”
“बइ तो बात हरैछी कौ उन दगढ़”।
“केसी भो यो सब”?” कै भो उननको”?
“बस दाज्यू जैस ईश्वर क मर्जी”। और सामने से फोन कट गया। और मैं चले गया यादों में।
उस वर्ष मेरा बारहवी का रिजल्ट आया था। आगे की पढ़ाई की सुविधा गाँव में ना होने
के कारण मुझे आगे की शिक्षा के लिये अल्मोड़ा जाना पड़ा।
अल्मोड़ा आये हुए, मुझे करीब दो महिने हो गये थे। अकेले अल्मोड़ा में रहते हुऐ अक्सर मुझे घर की याद सताती थी तब मैं कमरे की उबन से बचने के लिये मैं बाजार की तरफ चल देता। एक दिन ऐसे ही लाला बाजार के किनारे खड़ा हुआ मैं सामने का मनोरम दृश्य देख रहा था तभी ऐसा लगा मानों मुझे कोई पुकार रहा है। मैंने समझा कि ये मेरा भ्रम है। तभी दुबारा फिर मेरे कानों में वही आवाज गूँजी “बाँबी”! मैंने चौंक कर पीछे मुड़कर देखा। एक महिला कब से मुझे पुकारे जा रही थी। बड़ा ही आर्कषक था उनका व्यक्तित्व सामान्य कद, गेहुँवा रंग करीने से बंधी हुई मैरून रंग की साड़ी, चेहरे में अनोखा तेज, होंठों में ममतामयी मुस्कान, आँखों में करूँणा, बातों में अपनत्व, सर में गोल जूड़ा। मैंने उनको पैलाग किया ।“अरेकुसुमीदी आपु याँ“ ये कुसुमीदी थी।
“तू याँ कसी?” “कै करणों छैं याँ?”ण
“कुसुमीदी याँ मैंल डिग्री काँलेज में एडमिशन ली रक्खो बीए में”।
“अच्छा”। कब बटी छै तू याँ”?
“द्यू महिण ह गइन याँ।“
“या कारेछे तू”?
“कम्र्र ली रखों या”।
अब कुसुमी की बारी थी पहले तो मुझे जी भर के डाँट लगाई कि मैं क्यों यहाँ पर अलग कमरा ले कर रह रहा था। फिर मेरे साथ मैरे कमरे में गयी मेरा सामान व मुझे कमरे से निकाल ले गयी मूझे अपने घर। हालाँकि कुसुमी दी मेरे ही गाँव में रहती थी ।
यहाँ अल्मोड़ा में अपने भरे-पूरे परिवार के साथ रहती थी। कुसुमीदी अविवाहित थी। सात भाई-बहिनों में छोटी। उनसे छोटा एक भाई था जिसे घर के लोग प्यार से नानू कहते थे। हालाँकि उन का नाम कुछ और था। कुसुमीदी अपनें घर में सबसे छोटे होते हुए भी सबसे समझदार थी। सबको साथ लेकर चलने वाली थी। और घर के सभी सदस्य उनको प्यार भी करते थे और सम्मान भी,चाहे वह घर का बड़ा सदस्य हो या छोटा।
कुसुमी दी के साथ अब मैं उनके घर में था।एक सकुचाहट थी मेरे अंदर, कुसुमीदी ने घर के सभी सदस्यों को पुकारा और पलभर में ही सभी सदस्य मेरे सामने थे कुसुमीदी ने पूरी बात घरवालों को बताई और सभी मुझसे नाराजगी प्रकट करने लगे और मुझे सख्त हिदायत दी गयी कि आगे की पढ़ाई अब में उनके घर में रहकर ही पूरी करूँ।
कुसुमीदी को तो मानो ईश्वर ने धरती पर भेजा ही था मानवीय गुणों से परिपूर्ण कर, ताकि जरूरतमंदो की सहायता, ईश्वर उनके माध्यम से कर सके।
कुसुमीदी का व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि हर कोई पहली बार में ही उनके व्यक्तितव सेप्रभावित होजाता था। उनका घर मन्दिर और कुसुमीदी साक्षात अन्नपूर्णा। ना उनके घर में कभी अन्न की कमी रहती ना स्नेह की, मेरे साथ ना जाने कितनों के भविष्य को सवाँरने का दायित्व कुसुमीदी ने अपने कँधे पर ले रखी थी। मैंने कितनों से कुसुमीदी की तारिफ सुन रखी थी, जिनके भविष्य को सवाँरने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। इसके अलावा भी उनके मन्दिर में अतिथियों का आवागमन सुबह-शाम, रात-दिन बना रहता था। पर कुसुमीदी के चेहरे में कभी शिकन कभी नही दिखती। ऐसी थी मेरी कुसमीदी।
कुसुमीदी के ही पड़ोस में एक परिवार रहता था मध्यमवर्गीय, पुराने ख्यालात से ग्रसित। एक दिन उनके परिवार में कन्यारत्न का आगमन हुआ, परिवार तो कब से पुत्ररत्न की कामना के लिये भगवान से रात-दिन प्रार्थना करता मगर उनके घर हो गयी कन्या। अब घर में कोहराम मच गया। कोई भी उस प्यारी सी बिटिया को अपनाना नही चाहता था। जब कुसुमीदी को पता चला तो उन्होंने पहले तो परिवार के हर सदस्य को बहुत समझाया परन्तु जब वो लोग नही माने तो उन्होंने उस बच्ची के लालन-पालन का दायित्व स्वयं अपने ऊपर लेने का निर्णय लिया। हालांकि उस परिवार ने कुसुमीदी के इस निर्णय का पुरजोर विरोध किया । परन्तु वो तो कुसुमीदी थी कहाँ किसकी सुनने वाली। गलत को विशेष रूप से नही। चाहे गलत करने वाला, अपना ही क्यों ना हों। और कुसुमीदी ने उस बच्ची का लालन-पालन शुरू कर दिया। बच्ची का नाम उन्होंने संचिका रखा, संचिका बड़ी ही प्यारी बच्ची थी बड़ी-बड़ी आँखें, चेहरें में मासुमियत, दो चुटियाँ के साथ तुतलाते हुऐ पूरे घर में दौड़-भाग करती। पूरा घर भी संचिका के साथ व्यस्त रहता उसकी शरारतें भी मन को लुभाने वाली होती थी। संचिका अब स्कूल जाने लगी कुसमीदी उसे अपने हाथों से नहलाती, स्कूल के लिये तैयार करती व उसकी नन्हीं अंगुलियों को पकड़ स्वयं उसको स्कूल तक छोड़नें जाती व स्कूल से घर लाती। संचिका अब बड़ी हो गयी व पर्यटन विभाग (कुमायुँ मण्डल विकास निगम) में प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत है। ऐसी थी कुसमी दी।
कुसमीदी गाँधीआश्रम में कार्यरत थी। जितनी अच्छी वह गृहणी थी उतनी ही अच्छी वह कर्मचारी। कार्यालय में क्या अधिकारी, क्या सहयोगी, व क्या चपरासी सभी उनसें खुश रहते थे। सभी के साथ उनका व्यवहार मृदु रहता व सम रहता। कार्यालय में हर किसी की सहायता के लिये वो हमेशा तैयार रहती। जिस किसी को कुसुम मैडम की जरूरत रहती कुसुम मैडम हाजिर, यही कारण था कि हर कोई कुसुमी दी को अच्छा मानता था।
कुसुमीदी के कार्यालय में ही एक और महिला कार्यरत थी,पाण्डे मैडम चार वर्ष पूर्व ही मैडम पाण्डे के पति का देहान्त शराब के अत्यधिक सेवन के कारण सड़क दुर्घटना में हो गया था। पहाड़ों में शराब एक प्रकार की महा मारी बन चुकी हैं। जिसका शिकार शराब का सेवन करने वाले तो होते ही है ,साथ ही साथ इसके प्रभाव में आकर कई परिवार उजड़ जाते हैं। मैडम पाण्डें भी शराब की महामारी की चपेट से बच ना सकी।और उनको अपने शराबी पति को खोना जो पड़ा था। मैडम पाण्डे के परिवार में उनके अलावा दो बच्चें व सास-ससुर थे,जिनका पूरा दायित्व अब मैडम पाण्डे के कंधो पर था।
एक दोपहर भोजनावकाश के समय कुसुमदी कार्यालय में सब लोगों के साथ भोजन करने बैठीं, तो उन्हें मैडम पाण्डे कही दिखायी नही दी। वे मन ही मन में सोचने लगी कि मैडम पाण्डे तो आँफिस आई तो थी, फिर भोजन के लिए दिखाई क्यों नही दे रही हैं! जब उन्होंने खोजबीन की तो मैडम पाण्डे उन्हें अपनी सीट पर ही दिखाई दी। आज मैडम पाण्डे के चेहरे में उदासी के बादल स्पष्ट दिखाई दे रहे थें। ऐसा लग रहा कि उनके अंतर में मानों कोई द्वंद चल रहा था, मानो आंसु आंखों से बाहर निकलना चाह रहे हों। कुसुमीदी ने जैसे ही मैडम पाण्डे के कंधे पर अपना हाथ रखा, वैसे बरबस जल –धारायें मैडम पाण्डे की आंखों से बाहर निकल गये। मैडम पाण्डे ने आज खाना भी नही खाया था। टिफिन जस का तस था। कुसुमीदी ने पहले तो उनके आंसु पोछे फिर स्वयं अपने हाथों से उन्हें भोजन कराया। फिर जब उनसे बात करी, तो मैडम पाण्डे ने अपना दिल निकाल कर कुसुम दी के सामने रख दिया कि कैसे उन्हें यहाँ काम करते हुए तीन साल पूरे हो चूके हैं। अभी तक स्थायी नही किया गया है,जबकि उनके बाद के आए नये लोगों को ना केवल स्थायी किया गया बल्कि पूरा वेतन मान भी पदानुसार दिया जाने लगा था। फिर क्या था। कुसमीदी ने तो जैसे ठान लिया था कि मैडम पाण्डे को न्याय दिलवाना ही है कुसुम दी ने पहले इस संबध में कार्यालय स्तर पर लड़ाई लड़ी, परन्तु जब वहाँ से निराशा हाथ लगी तो फिर कानुनी लड़ाई लड़कर मैडम पाण्डे को न्याय दिलवा, उनके चेहरे की मुस्कान लौटाई। तो ऐसी थी मेरी कुसुम दी।
कुसुम दी को अपने पहाड़ से भी अत्यधिक लगाव था। मडवे की रोटी को गुड़ या भांग के नमक के साथ खिलाना-खाना उन्हें बड़ा अच्छा लगता था। उनके घर में पहाड़ी व्यंजनों की भरमार रहती थी क्या आलु के गुटके, क्या सैं, क्या सिंगल, आलु के गुटके व भांग की चटनी, भट की च्युलकाड़ी, भट का जौल, भट की डूबकी, मास की चैस, बड़ी-मुंगोड़ी की सब्जी, लाई की सब्जी, पालक का कापा आदि ना जाने कितने कुमाऊँनी व्यंजनों का रसास्वानंद लेने का सौभाग्य तो कुसुम दी के घर में ही प्राप्त होता था।
एक बार हम लोगों का कार्यक्रम बना चितई मंदिर जाने का, फिर क्या था, रविवार के दिन सुबह-सुबह हमलोग चल दिए। देवदार के हरे-भरे वृक्ष के बीच से घुमाँउदार रास्तों से होते हुऐ करीब दस बजे हम लोग चितई मंदिर पहूँच गये। रास्ते में आते हुऐ डान्न गोल्यू जी के भी दर्शन किये। खैर गोल्यूजी के दर्शन किये, मनमें आनन्द था। मंदिर के बाहर का दृश्य तो बहुत ही मनोरम था। आसमाँन में बादल लगे हुऐ थे, कुनकुनाती धूप, देवदार के वृक्षों से छन-छन कर आती ठंडी हवा, घंटी व घड़ियालों की आवाजें मन को लुभा रही थी।
पूजा करने के बाद हम लोग मंदिर की सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आये। फिर दुकान में जाकर आलू के गुटके व ककड़ी के रायते का रसास्वादन किया। कुसुम दी तो खाने व खिलाने की शौकीन थी।
कुसुम दी बच्चों के साथ बच्चा बन जाती, वृद्धों के साथ उनकी ही तरह व्यवहार करती, युवाओं के साथ युवा बन जाती। वो एक ओर जहाँ परम्पराओं से जुड़ी हुई थी वहीं दूसरी ओर आधुनिक सोच को भी मर्यादित हो सम्मान देती। जहाँ अनुशासन को पसंद करती वही अनुशासन के नाम पर अत्याचार को भी नही सहती।
उनका परिवार भरा-पूरा परिवार था। घर में भाई-बहनों के अलावा भतीजें-भतीजीयाँ भांजें-भांजियाँ व मामा चाचा मौसीयो के बच्चें साथ रहते थें और बड़े प्रेम से रहते थे। एक बार उनके ही परिचय में एक परिवार था, जिनके वहाँ कुसुम दी का आना-जाना लगा रहता था। यूँ तो वो परिवार अच्छे परिवारों में माना जाता था पूरे अल्मोड़ा मे।पर वो परिवार बालिकाओं के संदर्भ कुछ ज्यादा ही अनुशासित था। उनका मानना था कि महीलाओं को आवश्यकीय शिक्षा पूरी होते ही उनका विवाह कर दिया जाना चाहिये। उस परिवार में एक बच्ची थी जिसे वे प्यार से मनु कहते थे वैसे उसका पूरा नाम मनीषा था। मनु पढ़ने में अच्छी थी।बारहवी की परीक्षा में उसने पूरे अल्मोड़ा का नाम उज्जवल करा था।उसका चयन मेडिकल की पढ़ाई के लिये हुआ था। जिसके लिये उसको अल्मोड़ा छोड़,पूना जाना था। पर मनु के घर वाले उसको पूना जाने की अनुमति नही दे रहे थे। वे चाहते थे कि मनु बारहवीके बाद की पढ़ाई अल्मोड़ा में ही रहकर करे मनु यहाँ के डिग्री काँलेज से अपने बीए की पढ़ाई करे व इसके बाद एमऐ करले फिर इसकी शादी कर देंगे। वैसे भी बाहर जाकर बच्चें बिगड़ जाते हैं और फिर ये तो लड़की जात का मामला जो हुआ। कुसुम दी को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने मनु के बात कर उनको समझाया । और फिर मनु को पूना भेजने की व्यवस्था करवाई। इस तरह मनु ने मेडिकल की पढ़ाई पूना में करने के बाद अल्मोड़ा आकर डाँक्टरी की प्रेक्टिस करी। आज मनु डाँक्टर बन अल्भोड़ा में लोगों की सेवा करती है। ऐसी थी मेरी कुसुम दी।
एक बार कुसुम दी मेरे पास आकर बोली” बाँबी भौ हू कै करण छ तू”?
“कै खास न”। मैने उत्तर दिया।
“तो भोहूँ जागेश्वर हीठ छै”? कुसुम दी ने पूछा।
मैने कहा “हीटो दीदी”, “नेकी और पूछ-पूछ”।
कब बट्टी मन में इच्छा थी, त्यारब दौलत यो ले पुर हैज्याली”।
“कब जुन हम लोग “? मैने पूछा
“भौ हूँ ली रत्तबायांड”। कुसूम दी ने कहा
रात में सभी लोग समय से खा पी कर सो गये सूबह जल्दी जो उठना था।
सूबह सभी लोग जल्दी उठ गये । मैंने सूबह पहले नींबू शहद डाल कर गरम पानी पिया,फिर दैनिक दिनचर्या से निवृत हो मैने चाय पी।फिर नहा धोकर थोड़ा ध्यान किया और तैयार होकर सूबह लगभग सात बजे हम लोग जागेश्वर के लिये निकल गये। रास्ते में हरी-भरी वादियों का आन्नद लेते होऐ जा रहे थे। सर्पाकार सड़कें,हरे-भरे पेड़ कहीं पर पहाड़ नंगे थे।ये भी हम मनुष्यों की कृपा थी। विकास की आढ़ में शुरू हुआ पहाड़ों के विनाश का खेल। हम लोग करीब दस बजे के आसपास जागेश्वर-धाम पहूँच गये।
जागेश्वर-धाम मानो साक्षात महादेव का धाम देवदार के पेड़ों से घिरा अत्यन्त सुरम्य स्थान।
मन करता बस यहीं बस जाऊँ।मंत्रोचार से वातावरण शोभायमान हो रहा था ,एक अलग ही आन्नद की तरंगिणी मेरे अंतर्मन में प्रवाहित हो रही थी ।रह-रहकर ठंडी हवा के झोंके तन-मन को स्फूर्त कर रहे थें। जागेश्वर मंदिर कुमाँऊ के प्राचीनतम व प्रसिद्ध मंदिरों में से है। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान में शिव जी व सप्त ॠषियों ने तपस्या करी थी,इसलिये इसको शिव की तपोस्थली भी माना जाता है। इसके किनारे-किनार पानी की पतली जलधारा के रूप में नदी बहती है जिसे जटा गंगा कहते हैं।
खैर शाम को हम लोग वहाँ से भारी मन से वापस अल्मोड़ा लौट आऐ। इस तरह से कुसुम दी के साथ बिताया हर एक पल मधुर रही।
कुसुम दी को पहाड़ से अत्यधिक लगाव था। उन्हें पहाड़,पहाड़ के लोग,पहाड़ की संस्कृति व पहाड़ के त्यौहार से दिल से प्यार था। पहाड़ों पर ही रहे आवश्यकता से ज्यादा निर्माण कार्यों से उन्हें आत्यधिक पीड़ा होती क्योंकि उनका ऐसा मानना था कि ये कहीं ना कहीं पहाड़ों के अस्तित्व के साथ खिलवाड़ था। वे पहाड़ में शराब की बिक्री का भी धुर विरोध करती थीं। उनका मानना था कि शराब युवाओं के भविष्य को दीमक की तरह खोखला करता जा रह है। परन्तु इसे उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ना कहें तो और क्या कहें कि उत्तराखण्ड में जितनी सरकारें आई सबों ने ही उत्तराखण्ड के हित में ना काम करके शराब माफियों के ही हित में काम करा।
खैर कुसुम दी के साथ मैंने पाँच साल बिताये,जो मेरे लिऐ अविस्मरणीय रहे।फिर नौकरी के सिलसिले में मुझे दिल्ली आन पड़ा।दिल्ली आने में भी कुसुम दी मुझे स्टेशन तक आईं, उन्होंने मेरे रास्ते के लिऐ खाना तो खैर रखा ही था,फिर भी खिमसिंह मोहनसिंह की प्रसिद्ध बाल मिठाई एवं सिंगौड़ी के आधे-आधे किलो के दो डिब्बे भी रास्ते के लिये रखवा दिये।
खैर दिल्ली आने के बिद मेरी व्यस्तताऐं नौकरी भें बढ़ गयी थी, बीच-बीच में जब भी अवसर मिलता उनसे फोन से बात करता। पत्र तो हफ्ते में एक बार अवश्य ही लिखता। अगर छुट्टी में घर जाता तो अवश्य ही कुसुम दी के घर खिमदा की दुकान से सिंगोढ़ी लेकर, दो-तीन दिन कुसुम दी के घर में बिताने के बाद मैं आखे की यात्रा करता। यही क्रम दिल्ली लौटते समय भी रहता। कुसुम दी मेरी तरक्की देख व सुन कर बहुत खुश होती।
आज अचानक कुसुम दी के जाने के समाचार ने मुझे अःधर तक झकझोर कर रख दिया।
अचानक पत्नी की आवाज ने मेरी तन्द्रा तोड़ी बोली “चाय तो पीलो “ ।“किसका फोन था”?
मैं कुछ बोलने की स्थिति में नही था, बस इतना ही कह पाया ,”कुसुम दी नही रही अब।
पत्नी भी अवाक रह गयी ये सुनकर ।और दोनो ही निशब्द थे। बस एक सन्नाटा पसरा था।
मानो कि सब कुछ ठहर गया हो।
यूँ तो जीवन-पथ मे अनेक यात्रियों से मुलाकात होती है। कितने चेहरे आते हैं ,आगे बढ़ जाते हैं, कुछ स्मृतियों के साथ धूमिल पढ़ते चले जाते हैं।कुछ चेहरे कुछ पल के लिऐ मनोमस्तिष्क में ठहर जाते हैं परन्तु समय का प्रवाह उनको भी हमसे दूर ले जाता है। परन्तु कुछ चेहरे ऐसे होते हैं जो जीवनपर्यन्त जीवन-पथ में हमारे साथ चलते हैं हमारी सम्पूर्ण यात्रा में हमसाया बन और कुसुम दी भी उन चेहरों में से ही एक थी।
“आज कुसुम दी भले ही वाह्य रूप से अपने जीवन की यात्रा पूर्ण कर चूकी हों,
पर वो आज भी यही हैं आसपास हमारी यादों में।”