गावों की रसोई में अक्सर देखी जाने वाली काली कलूटी सी महीनों महीनों ना नहाने के कारण जिसका नाम कल्लू पड़ गया हो।
जिसने आग की तपिश सहते सहते अपनी जवानी से लेकर बुढ़ापा निकाल दिया हो जो आपकी ख्वाइशों के लिए समय समय पर खुद को तपाती रही जिसने आपकी तलब को पूरा करने के लिए घंटो अंगारों में तपती रही आषाढ की रूपाई हो या गेहूं की बुआई हमेशा से ही पहाड़ के लोगो को गर्मागर्म चाय परोसी हो आप कैसे भूल सकते हो केतली को जिसने पौष की रातों में आपकी सर्द सासों को गर्म किया हो |
केतली का सामाजिक जीवन
चूल्हे पर केतली के दो ही यार बन पाए एक अंगीठी और दूसरी बिल्ली मौसी जो कभी कभी बगल में आकर बैठ जाया करती। कभी राम राम तो कभी म्याऊं म्याऊं बोला करती थी | सच बोलें तो केतली ही एक ऐसा रसोई का बर्तन था जो हमेशा अंगीठी के बगल में रहकर ही सारा जीवन निकाल दिया। समय समय पर चाय पीना पहाड़ियों का शौक बोले या फिर लत, चाय का अमल ही कुछ ऐसा है। केतली की चाय ने ही शायद सारे पहाड़ियों को जोड़े रखा था।
अब वो दौर निकल गया है पहाड़ों में केतली सिर्फ एक नाम मात्र रह गई है। जब से गैस चूल्हे और इंडक्शन चूल्हे क्या आए तब से केतली को पराया कर दिया है। लकड़ी का चूल्हा तो अब गरीबों के घर ही दिखता है, जहां अब भी केतली देखने को मिल जाएगी।
दीवार पर एक खूटे से लटकी केतली टुकुर टुकुर गैस वाले चूल्हे को देखती रही थी फिर अचानक मेहमान घर में आए ताई ने गैस का चूल्हा जलाया फ्राई बीन में चाय चड़ाई और केतली का ढक्कन खोलकर उसमे से मिश्री निकाली ताई मेहमानों के साथ चाय पे गप्पे लड़ाती वहीं केतली ठगी ठगी सी महसूस करती। बोले भी तो क्या अब तो ना ही वो अंगीठी दिखती है ना ही वो बिल्ली।