मोहनदा, नीली जींस, लाल टी-शर्ट पहने हुऐ व साथ में नीलें स्पोर्ट्स के जूते। मोहनदा की आँखों में काला चश्मा, सिर में देवानन्द स्टाइल हेट, गले में स्कार्फ, उनके व्यक्तित्व को एक अलग ही पहचान देता था। फिर उस पर मुँह में सिगरेट व सिगरेट की कश को अंदर खींचकर धुँओं के छल्लों को हवा छोड़ना ये तो मोहनदा का स्टाईल था।
मोहनदा पुरानी सी बाइक में सवार हो पहुँच जाते बचदा की दुकान। ये हो सकता था कि कदाचित सूरज, सूबह पश्चिम से निकल जाए, ये भी संभव था कि तारें दिन में चमक जाएं, पर ये नही हो सकता कि मोहनदा, बचदा की दुकान में अपनी उपस्थिति दर्ज ना कराएं। मोहनदा दुकान में आते, बचदा को चाय बनाने को कहते और अखबार ले बाहर बैठते। बाहर मोड़ से आती स्कूल व काँलेज की लड़कियों को मोड़ से आते देख कर काला चश्मा ऊपर–नीचे करने लगते व उनके पास से गुजरते ही दो–चार फब्तियाँ कसते फिर उनके पीछे–पीछे चल देते बाइक लेकर बचदा पीछे से आवाज भी मारतें कि चाय भी बन गई है तो पीते चले जाओ मोहनदा कहते। बस अभी आया और फिर आते दो–तीन घंटे बाद मानों कन्याओं को घर तक छोड़ कर आऐ हों। कभी-कभी मोहनदा आते तो उनके गालों में पाँच उंगलियों के निशान होते और सभी लोग समझ जाते।
आप लोग मोहनदा को कही सड़क छाप मजनूँ तो नही समझ रहे हैं। अरे ना, ना जैसा आप लोग समझ रहे हैं वैसा कुछ भी नही है। आप लोगों ही की तरह मैं और वो सभी लोग भी मोहन दा को सड़क छाप मजनूँ ही समझते आए हैं वो तो एक घटना क्रम ने उनके वास्तविक स्वरूप को हमारे सामने रखा।
मोहनदा के साथ एक दिन एक और सज्जन भी बचदा की दुकान में आये हुऐ थे। मोहनदा ने उन महाशय का परिचय मन्नुदा यानी मनमोहन के रूप में कराया। मन्नुदा, मोहनदा के बिल्कुल उलट ही नजर आ रहे थे सीधे–सादे कपड़े पहने हुऐ व धीर–गम्भीर। मोहन दा ने दुकान में आते ही पहले तो सिगरेट सुलगाई फिर अंदर तक लम्बी कश लेते हुऐ सिगरेट के धुओं का छल्ला छोड़ना हुऐ बोले, ”बचदा दो चाय बनाओ हो।“ बचदा बोले, लो बस अभी चाय तैयार मोहनदा बाहर कुर्सी में अखबार लेकर बैठ गयें।
आज अमर उजाला नही आया क्या?
आज दैनिक जागरण डाल गया वो। बचदा बोले।
दैनिक जागरण तो घर में ही पढ़ आया था मैं। मोहनदा बोले। और फिर मोड़ से आती हुई लड़कियों को देखकर बोले आ रही हैं रंग-बिरंगी बहारें। शायरों ने भी इन्हें अनेकों उपमाओं से अलंकृत किया हैं कभी बागों की कलियाँ, कभी रंग-बिरंगी फूल, कभी रंग-बिरंगी तितलियाँ, कभी चौदहवीं का चाँद, आदि–आदि। इधर मोहनदा की बातें पूरी हुई, उधर लड़कियों उनके आँखों के सामने से गुजरते हुऐ आगे बढ़ गई। बस मोहनदा ने बाइक में किक मारी और चल दिए लड़कियों के पीछे। बचदा हँसते हुए बोले, ”अब तीन घंटे से पहले तो आएगें नही।
चाय की दुकान में बैठे हुए सभी लोग जो मोहनदा को जानते थे बचदा की बात पर हँस पड़े। बचदा मन्नुदा को देखते हुऐ बोले, क्या उम्र होगी इनकी? मन्नुदा ने कहा,” ये ही कोई पैंतालीस-पचास। यार इस उम्र में ऐसी हरकतें शोभा देती हैं क्या“? तब मन्नुदा बोले,” ये मोहनदा आप लोगों को जैसा आज दिखाई देते हैं ये पहले ऐसे नही थे। क्या मतलब?
असल में मोहनदा काफी पढे–लिखे हैं।
उन्होंने हिन्दी से एम ऐ करने के बाद पीएचडी किया। उसके बाद डिग्री काँलेज में हिन्दी के अध्यापन का कार्य करते थे। ये काफी मिलनसार व सूबों की मदद करने वाले थे। इनका समाज में बड़ा सम्मान था, परन्तु एक घटनाक्रम ने इनको व इनके जीवन को ही बदल कर रख दिया। ये कहकर मन्नुदा शान्त हो गये।
मन्नुदा का अचानक यूँ चुप हो जाना, सबों के लिए कौतूहल बन चुका था अब सभी मोहनदा के अतीत को जानना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मन्नुदा से अनुरोध किया कि वो मोहनदा के अतीत से परदा उठाएं। मन्नुदा ने लोगों के अनुरोध को स्वीकार कर मोहनदा के अतीत से परदा उठाते हुए कुछ यूँ बताया।
मोहन दा से मेरा परिचय कक्षा नौ में हुआ था, स्कूल का पहला दिन था जुलाई का महीना, हल्की–हल्की बारिश हो रही थी मैं और मोहनदा दोनो ही अलग-अलग स्कूल से आए थे। मोहनदा और मैं कक्षा में बैठे हुए थे। दोनों ही स्कूल से व एक–दूसरे के लिए अजनबी थे। मोहनदा मेरे पास आये और अपना परिचय दिया मैं मोहन जोशी और आपका परिचय मैंने अपना परिचय मनमोहन बिष्ट के रूप में दिया। इस तरह से हमारी दोस्ती की शुरूआत हुई। जैसे–जैसे समय आगे बढ़ता गया, वैसे–वैसे हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होती गयी।
खैर समय गुजरता गया कक्षाएं बदलती गयीं पर हमारी दोस्ती में कोई बदलाव नही आया इंटर पास करने के बाद हम डिग्री काँलेज आ गये ये करीबन उन्नीस सौ सत्तासी की बात है। इंटर तक, तब लड़को की पढ़ाई अलग होती थी और लड़कियों की अलग। डिग्री काँलेज में जाकर ही लड़के–लड़कियों की पढ़ाई एक साथ होती थी। डिग्री काँलेज में, हमारी क्लास में, यूँ तो कई छात्र–छात्राएँ थी पर उन सब में एक लड़की ऐसी थी जो सब से अलग थी उसका नाम था मधु।
मधु जो शरारती थी चंचलता तो मानों उसके चेहरे में छलकती थी, हाँ बातें तो इतना करती थी, कि अगर कभी वह काँलेज ना आए तो पुरा काँलेज सुना हो जाती था, गोरा रंग था उसकी गहरी आँखें थी। सीधे व लम्बे बाल थें। लम्बी व छरहरे बदन की एक बहुत ही सुंदर युवती थी। उसकी अल्हड़ता का हर कोई दीवाना था। उसकी मस्तियाँ, उसकी शरारतें पूरे काँलेज में मशहूर थी। हर कार्यक्रम में उसकी हिस्सेदारी जरूर होती। हिन्दी में उसकी गहरी रूचि थी। इस काँलेज में यूँ तो हमारी सबों के साथ अच्छी निभती थी, पर हम पाँच लोगों में अच्छी व गहरी दोस्ती थी। जिसमें मनमोहन थे ही तीन लोगों में मधु, सिद्धार्थ एवं मनीषा थी। हम लोग साहित्य पर घंटों चर्चा करते थे। परीक्षा के समय रात–रातभर जगकर हम लोग व साथ–साथ विषय पर बहस भी करते। हमारे काँलेज में हर साल सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता। एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान मोहनदा व मधु को एक कार्यक्रम में एकसाथ हिस्सेदारी करनी पड़ी, और वहीं दोनों के मध्य प्रेम का बीज अंकुरित हुआ जो समय के साथ–साथ विशाल वृक्ष में परिवर्तित हुआ। समय के साथ हम भी आगे बढ़ते गये और साथ–साथ बढ़ती गई मोहन व मधु की नजदिकयाँ। और इस तरह से मोहनदा और मधु चल दिए थे एक नये पथ पर प्रेम–पथ पर।
ये प्रेम–पथ है। साहब, इतना सरल थोड़ी है ये पथ। ये पथ दूर से तो बड़ा सुहावना लगता है। और शुरू–शुरू में तो हर कोई यातो इस पथ पर चलना चाहता है या कुछ कदम चलता भी है, पर जैसे–जैसे इस पथ पर लोग आगे बढ़ते हैं, या तो घबराकर थम जाते हैं या फिर पीछे लौट जाते हैं।
खैर जब मोहनदा और मधु ने इस पथ पर आगे बढ़ने का निश्चय किया, तो उन्होंने निश्चय को दॄढ़ता से निभाया भी। हम लोगों ने एम ए तक का सफर तो एक साथ बिताया इसके बाद हम अपने–अपने करियर के लिए एक–दूसरे से दूर चले गये थे। हालांकि हम लोग के बीच पत्र–व्यवहार जारी रहा। मोहन दा व मधु दोनों ने एक ही कॅरियर को चुना दोनों ने पहले हिन्दी में पीएचडी करी फिर दोनों ही डिग्री काँलेज में हिन्दी विषय को पढ़ानें लगें।
मधु के घर में उसके ईजा, बाबू, व एक बड़ी बहन भी थी। मोहनदा व मधु ने निश्चय किया था कि मधु की बड़ी बहन की शादी के बाद वो दोनों बी विवाह कर लेंगे। मधु की बड़ी बहन की शादी भी तय हो गयी थी और आगले महीने ही होने वाली थी। उन्होने निश्चय किया कि बड़ी बहन की शादी के बाद वो भी अपने–अपने घरवालों से बात करगें। परन्तु नियति को तो कुछ और ही मंजूर था।
एक दिन मोहनदा और मधु दोनों ही एकांत के क्षणों का आनन्द ले रहे थें, तभी मधु के पड़ोस के एक सज्जन वहाँ से गुजर रहे थें। जिन्होंने मोहनदा व मधु को एकांत में आन्नदित होते देख लिया था, फिर क्या था उन्होंने उन दोनों की तस्वीर चुपके से लेकर उसे पूरे शहर में फैला दिया। देखते–देखते मोहनदा व मधु के चर्चा पूरे शहर में जंगल में आग की तरह फैलने लगी।
अब मधु के घर में, मधु की एक बड़ी बहन भी थी जिसका विवाह भी उसी शहर मे तय हुआ था। मोहन व मधु की तस्वीर जब मधु के बड़ी बहन के भावी ससुराल में पहूँची तो उन्होंने ने आनन–फानन में ये रिश्ता तोड़ दिया।
मधु के परिवार मकान तो जैसे बिजली ही गिर पड़ी हो, परिवार इस दोहरी मार को बर्दाश्त नही कर सका पहले पिता ने आत्महत्या कर ली, फिर मधु की बड़ी बहन ने भी आत्महत्या कर ली। माँ एक के बाद एक हुऐ इन हादसों को सह ना सकी और उसकी मृत्यु हृदयाघात से हो गयी। मधु ने इन सब के लिए स्वयं को उत्तरदायी माना और वो अपना मानसिक संतुलन खो बैठी और आज भी वो मानसिक अवसाद से ग्रसित हो पागलखाने में भर्ती है। और मोहनदा उस घटना के बाद स्वयं को माफ नही कर पायें। आज भी मोहनदा ने अपना घर नही बसाया है। बस वो आज भी मधु की ही प्रतीक्षा करते हैं, इस विश्वास के साथ कि मधु जल्दी ही सामान्य हो जायेगी और एक दिन लौट कर आयेंगी सामान्य जीवन में, हम फिर से निकल पड़ेंगें प्रेम–पथ पर।
मन्नुदा अपनी बात कहकर चुप हो गये। लोगों का नजरिया अब बदल गया था, जो अब तक मोहनदा के लिए बहुत अच्छी राय नही रखते था, अचानक लोगों की नजरों में उनका सम्मान बढ़ गया था।
बचदा की चाय तैयार थी, दूर से मोहनदा भी सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए लौटकर आ रहे थे हालांकि वो अभी दूर थे क्योंकि बचदा ने मोहनदा को आते हुए देख लिया था। मोहनदा ने आते ही बचदा से चाय मांगी और धीरे–धीरे चाय का आन्नद उठाने लगे। खैर चाय के साथ हँसी–मजाक का दौर भी चल रहा था। सबों के ये पता था कि मोहनदा के हँसते चेहरे के पीछे एक दर्द है जो अब तक सबसे छिपा था लेकिन मन्नु दा के कारण प्रकट था। मगर सभी लोग वैसे ही अंजान थे जैसे किसी को कुछ पता ही ना हो। मोहनदा की बातें और चाय दोनों ही एक साथ खत्म हो गये। मोहनदा और मन्नुदा दोनों बाइक में सवार हो बचदा की दुकान से चल दिये।
समय धीरे-धीरे अपनी गति से आगे को बढ़ते रहा था। सूरज सुबह आता और शाम को चला जा रहा था। मोहनदा भी बचदा के पास बैठते, लड़कियों के पीछे जाते फिर वापस आते, चाय पीते घर को चल देतें। हँसी–मजाक के दौर भी हर रोज चलतें और देखते–देखते एक साल बीत गया।
एक दिन मोहनदा वही रफ–टफ स्टाइल में सिगरेट के धुएँ को हवा में छोड़ते हुऐ बचदा की दुकान में पहुँच गयें। बचदा से चाय के लिए कहा तो बचदा ने दूध अभी तक नही आया कहकर चाय बनाने में असमर्थता व्यक्त कर दी। अचानक मन्नुदा भी दुकान में आ पहूँचें। मन्नुदा को यूँ अचानक देख मोहनदा चौकते हुऐ बोले, ”मनमोहन तू यहाँ कैसै? और अचानक। मन्नुदा सहित सभी ने मोहनदा को पहले तो जन्मदिन की बधाई दी। मोहनदा तो कबसे अपना जन्मदिन भूल ही चूकें थे, और आज अचानक अपने जन्मदिन की बधाई का सुनकर थोड़ी चौंक से गये। उनका चौंकना भी स्वाभाविक था।
खैर थोड़ा सा संयत होते हुए सबकी बधाईयों को स्वीकार किया। पर सब इतने भर में ही मोहनदा को छोड़ने वाले कहाँ थें आज। सभी लोग मोहनदा से पार्टी की मांग करनें लगें मोहनदा ने बचदा की दुकान में पार्टी देनी चाही, पर सबने अन्यत्र पार्टी की बात कहीं। मोहनदा इससे पहलें की कुछ सोच पातें तभी बचदा बोले की आज मेरे एक परिचित हैं, अरे वही डाँक्टर साहब, आज उन्होंने हम सबों को अपनें घर बुलाया है। सभी लोग बचदा को चौंकते हुऐ देखने लगे। बचदा बोले चौंकिये मत डाँक्टर साहब आज रिटायर जो रहे हैं, इसलिए वो अपने घर में एक छोटी-सी पार्टी दे रहे हैं। सभी लोग डाँक्टर साहब के घर को निकल पड़ें।
डाँक्टर साहब के घर पहुँचें। घर का दरवाजा एक महिला ने खोला जो तकरीबन पचास-साठ के आसपास की रही होगी। उस महिला को देखकर मोहनदा एकाएक चौंक पड़ें, उस महिला की सूरत मधु से हुबहू मिल रही थी। मोहनदा को यूँ चुप देखकर वो महिला बोली,” क्या देख रहो ऐसे, पहले कभी देखा नही क्या अपनी मधु को”? जन्मदिन की बधाई हो मोहन। पीछे से सभी बोल पड़े,” मोहनदा जन्मदिन का उपहार कैसा लगा? आज सभी ने मोहनदा की आँखों में वो आँसु देखे जो मोहनदा वर्षों से दिल में छिपाए हुए थें। मोहनदा की आँखों से छलकते आंसुओं को कोई नही समझ पाया था सिवाय मोहनदा के।
मोहनदा घर को लौटते हुए शुकून का अनुभव कर रहे थे और खुश थे मधु खुशहाल भविष्य को देखकर। अब उन्हें तसल्ली थी।
प्रेम–पथ इतना सहज नही होता। अनेकों इंतिहान देने पड़ता हैं इस पर जैसे मोहनदा दे दिया था, प्रेम–पथ पर चल कर।