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पलायन की दास्तां | दुखता पहाड़

Migration Issue in Uttarakhand | Pahadi Log

वैसे तो रमेश गुरुग्राम मै एक प्रतिष्ठित कंपनी में काम करता था, लेकिन लॉकडाउन के दौरान सब घर पर बैठ गये, महीने की तनख्वाह आई भी नही थी कि सरकार ने पूरे देश मै लॉकडॉन घोषित कर दिया अब करे भी तो क्या घर पर ही रहना है।

बाहर निकले तो पुलिस के डंडे मिलेंगे। जैसे तैसे एक हफ्ता बीत गया और मालिक ने महीने की पगार तो पूरी दे दी। मार्च महिना भी बीत गया सरकार ने फिर लॉक डाउन की समय सीमा बढ़ा दी। बच्चे खुश थे चलो स्कूल जाने से पीछा तो छूटा सब कुछ ठीक चल रहा था देखते देखते महिना निकल गया बचत भी खतम होने लगी थी और कंपनी का ही सहारा था अगर इस महीने पगार आती है तो कम से कम ये महिना भी जैसे तैसे कट जायेगा पगार तो आई नही लेकिन कंपनी से कॉल आया की उत्पाद की विक्री न होने के कारण वित्ति घाटे के चलते इस महीने की पगार नही दे पाएंगे अगला महिना भी जैसे तैसे निकल रहा था तब अचानक रमेश को गाँव का ख्याल आया उसने मन बना लिया था कि कुछ भी हो अब गाँव जाकर कुछ काम कर लूँगा वैसे भी सरकार पलायन को रोकने के लिए इतने सारे स्कीम ला तो रही है कुछ न कुछ मैं भी कर लूँगा। साथ ही हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे थे, रमेश ने आखिरकार अपने गॉव जाने का विचार पक्का कर लिया और परिवार सहित वह अपने गॉव के लिए गाड़ी बुक करवा कर शहर से गॅाव के लिए निकल पड़ा।

लॉकडाउन के नियमों के तहत वह 14 दिन स्कूल में क्वारंटीन रहा, उसके बाद घर आ गया। जहाँ गाँव मै उसके बड़े भाई का परिवार रहता था बड़े भाई 30 साल आर्मी मै देश की सेवा कर के आये थे गांव मै उनकी अच्छी इज़्ज़त थी बड़े भाई के बच्चों के साथ रमेश के बच्चे काफी खुश थे जहाँ पहले की तरह रमेश भाई साब के बच्चों के लिए कुछ न कुछ ले जाया करता था वही इस बार खाली हाथ ही आना हुआ। लेकिन बच्चे खुश थे बहुत दिनों बाद जो मिले थे। घर में दो चार दिन तो ऐसे ही बीत गये लेकिन अब रमेश को रोजगार की चिंता सताने लगी करे भी तो क्या काम के बारे मैं सोचते सोचते उसको पिताजी की बात याद आई “बेटा भर्ती हो जा इज़्ज़त की नौकरी और बच्चों की जिंदगी सुधर जायेगी।”

रमेश की मुश्किले दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। जैसे तैसे उसने स्वरोजगार के कार्यों को करने करने की ठान ली थी और जानकारी लेने के लिए सरकारी दफ्तरों की ओर रूख किया एक तो लॉक डाउन उपर से कर्मचारी कार्यालय नही आते इसी कश्मकश मै हफ्ते बीत गए लेकिन रोजगार के नाम पर कुछ भी हाथ नही लगा।

दर बदर की ठोकरें खाकर कुछ थोड़ा बहुत काम करता जिससे दो रोटी का जुगाड़ तो हो जाता लेकिन कुछ इज्जत वाला काम नहीं मिल पा रहा था करें भी तो क्या। गॉव में स्वरोगजगार के लिए बहुत लोगों ने अनेकों सुझाव दिये, किसी ने मछली तालाब बनाने, किसी ने मुर्गी पालन, किसी ने बकरी पालन, किसी ने आर्गेनिक खेती, हर प्रकार के अनचाहे सुझाव दिये प्राईवेट में चाहे जितना भी मिल रहा था उसे दो वक्त की रोटी तो मिल रही थी।

महीने बीत गए लॉक डाउन भी पूरी तरह खुल गया स्वरोजगार योजना के जरिये लोन की प्रक्रिया जानने के लिए बैंक गया तो पता लगा कि सरकार की योजनाये केवल अखबारों और सोशल मीडिया तक ही है धरातल पर तो केवल धनवानों के लिए ही बैंक होते हैं, वहीं गॉव में अब पहले जैसे बात नहीं रही थी कि जैसे पहले खेती से अनाज हो जाता था तो अनाज की समस्या नहीं होती थी, पहले नमक तेल और साबुन का ही खर्चा था अब तो मोबाईल फोन सबके हाथ में है उसी के खर्च बहुत है लेकिन आमदनी तो अभी शून्य है, और खर्चों की कोई सीमा नहीं है। गांव मैं कुछ काम् करो भी तो उसकी खपत सीमित है भला सारा गांव खाली ही तो है इक्के दुक्के परिवार है। इसी कशमकश में उसे फिर से कंपनी की याद आई कंपनी में कॉल किया तो पता लगा कि कंपनी सुचारू रूप से चलने लगी है तभी रमेश को भी कंपनी ज्वाइन करने का प्रस्ताव आया लेकिन पगार पहले से कम मिलेगी ऐसा बताया गया । रमेश को थोड़ी सी राहत तो मिली आंख से आंसू छलक रहे थे। अगले दिन रमेश निकल पड़ा उम्मीद की इस घडी मै मन मै बहुत से सवाल लेकर जिंदगी जितनी आसान लगती है उतनी होती नहीं है समय-समय पर इसकी कीमत पता चलती है। सबकुछ देख लिया था रमेश ने कुछ ही महिनो मै जिंदगी कैसे पलट जाती है। कल तक जो परिवार हसी खुशी अच्छे शहर मै रहता था आज किस तरह तिल तिल को तरस रहा है लेकिन बुरा वक्त हमेशा के लिए नही रहता।

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