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पहाड़ के चेलि ज़वाई | महेश्वर संग गौरा, सातूं आठूं पर्व (Satu Aathu Festival)

Satu Aathu UK

Read about Satu Aathu Festival Uttarakhand

उत्तराखंड की संस्कृति एवं विरासत बहुत समृद्ध है। अपने दैनिक जीवन में स्थानीय लोगों द्वारा प्रकृति, मानव जीवन की सभी मूलभूत सुविधाओं, पशु, पक्षी, खेतों को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। उत्तराखंड में देवी और देवताओं को परिवार के सदस्यों की तरह समझा जाता है। गौरा से हमारे पहाड़ों की स्त्रियों ने बेटी का, तो भगवान शिव से उनका विवाह रचा के, देवों के देव महादेव से दामाद का रिश्ता बना लिया है।

“सातूं-आठूं पर्व उत्तराखंड के अलावा सुदूर पश्चिम नेपाल के नौं ज़िले में भी उसी तरह मनाया जाता है

इसी विवाह को सम्पन्न कराने के लिए हर साल भाद्रपद माह में सप्तमी और अष्टमी को विवाह की रस्में निभायी जाती हैं।
ऐसी मान्यता है की भाद्रपद (अगस्त – सितंबर) के सातवें दिन गौरा अपने मायके आती हैं और अगले दिन भगवान महादेव भी अपने ससुराल आते हैं।

इस पर्व की शुरूवात होती है भाद्रपद के महीने के पाँचवें दिन से। इस दिन पाँच या सात अनाजों को मिलाकर ,पीतल के बर्तन में , पानी में भिगाया जाता है जिसे बिरुड़ापंचमी पर्व के रूप में मनाया जाता है और दो दिन बाद, सातूं (अर्थात सप्तमी) पर्व के दिन भीगे हुए अनाजों को, नौला (गाँव का जल संसाधन) ले ज़ाया जाता है और धोया जाता है। उसी स्थान पर देवी गौरा (गामरा दीदी) की एक मूर्ति (कठपुतली, पुतला) मौसमी फसल और पौधों का उपयोग करके तैयार की जाती है।

पवित्र होने के बाद इसे नई नवेली ब्याहता के सर पर डोले में रखकर गाँव में लाया जाता है और पूरा गाँव माँ गौरा का स्वागत इस गीत को गाकर करता है|

“खोल दे माता खोल भवानी धरम केवाड़ ”

सातूं (सप्तमी, Satu) के दिन सभी विवाहित महिलाएं उपवास पर रहती हैं और अपने हाथों पर एक पवित्र धागा बांधती हैं और अपने लंबे विवाहित जीवन के लिए देवी से प्रार्थना करती हैं। शाम की शुरूवात होती है दो अलग – अलग टोलियों में महिलाओं / पुरुषों के झोड़े / खेल (उत्तराखंड लोक नृत्य) से, फिर परिवार के सदस्यों को बीज के साथ आशीर्वाद दिया जाता है और बाद में बीजों को माता पार्वती के पवित्र प्रसाद के रूप में खाया जाता है। इस अवसर पर स्थानीय फलों जैसे माल्टा, संतरा, आंवला आदि को एक सूती चादर पर रखा जाता है और ऊपर की ओर फेंका जाता है। मान्यता है जो कोई भी स्त्री इस फल को पकड़ती है, माँ गौरा के आशीर्वाद से, अगले आठूं त्योहार से पहले उसकी मुराद पूरी होती है।

शाम को जिस घर में गौरा (गामरा) रखी जाती हैं, वहां सभी लोग इकट्ठा होते हैं और लोक गीतों के साथ नृत्य करते हैं। इसके अलावा आठूं (अष्टमी, Aathu) के दिन गौरा की ही तरह एक मूर्ति को महेश्वर (महादेव) के प्रतीक के रूप में लाया जाता है। यह मूर्ति गौरा की मूर्ति के साथ रखी गई है। पूरा गाँव उनके दामाद के आगमन पर नृत्य करता है। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीतों को खेल कहा जाता है। यह जुलूस अगले चार-पाँच दिनों तक चलता है। चार-पांच दिनों के बाद गामरा और महेश्वर की मूर्ति को गाँव के मंदिर में लाया जाता है और ग्रामीण इन मूर्तियों को भारी मन से रवाना करते हैं, इस जुलूस को गामरा सिलाना (विदा) कहा जाता है। कुछ बूढी औरतें दुख में रोती हैं तथा सभी लोग गामरा दीदी और महेश्वर भिंजू (जीजा) से गाँव की सभी खुशियों को आशीर्वाद देने और अगले वर्ष में जल्द आने की प्रार्थना करते हैं।

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